सेलिब्रिटी वास्तु शास्त्री डॉ सुमित्रा अग्रवाल 

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क्या है कांवड़ यात्रा 

शास्त्रों के अनुसार किसी पावन जगह से कंधे पर गंगाजल लाकर भगवान शिव के ज्योतिर्लिंग पर जल चढ़ाने की परंपरा कांवड़ यात्रा कहलाती है। सावन मास में भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए कांवड़ यात्रा को सहज मार्ग माना जाता है। कहा जाता है कि जो भी सावन महीने में कांधे पर कांवड़ रखकर बोल-बम का नारा लगाते हुए पैदल यात्रा करता है, उसे अश्वमेघ यज्ञ करने जितना फल प्राप्त होता है। मान्यता है कि उसे मृत्यु के बाद उसे शिवलोक की प्राप्ति होती है।

कांवड़ यात्रा का महत्व

मान्यता है कि समुद्र मंथन के दौरान समुद्र से जो विष निकला था, उसे भगवान शिव ने दुनिया को बचाने के लिए पी लिया था। जिसके बाद से भगवान शिव को नीलकंठ भी कहा जाने लगा। क्योंकि विष पीने के बाद भगवान का गला नीला हो गया था। भगवान शिव के विष का सेवन करते ही दुनिया तो बच गई, लेकिन भगवान शिव का शरीर जलने लगा। ऐसे में भोलेनाथ के शरीर को जलता देखकर देवताओं ने उन पर जल अर्पित करना शुरू कर दिया और इसी मान्यता के अंतर्गत कावड़ यात्रा का महत्व माना गया है।

कांवड़ यात्रा के नियम और प्रकार

कांवड यात्रा के कई नियम हैं। कांवड़ यात्रा के दौरान नशा, मांस, मदिरा और तामसिक भोजन वर्जित रहता है। बिना स्नान किए कांवड़ को हाथ नहीं लगा सकते हैं।

सामान्य कांवड़ : सामान्य कांवड़ ले जाने वाले कांवड़िए आराम से जाते हैं। वे जगह-जगह पर जरूरत या थकावट महसूस होने पर यात्रा के दौरान विश्राम करते जाते हैं।

डाक कांवड़ : इसमें शिव के जलाभिषेक तक लगातार चलते रहना होता है। डाक कांवड़ ले जाने वाले कांवड़िए आराम नहीं करते हैं।

दांडी कांवड़ : ये भक्त नदी तट से शिवधाम तक की यात्रा दंड देते हुए पूरी करते हैं।

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