डॉ सुमित्रा अग्रवाल
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गुप्त नवरात्रे में ये कथा सुने।                                                                                                                                                        प्राचीन काल में सुरथ नामक राजा थे। एक बार शत्रुओं ने उन पर चढ़ाई कर दी। मंत्री लोग भी राजा के साथ विश्वासघात करके शत्रु पक्ष से मिल गए। परिणामस्वरूप राजा की पराजय हुई और वे दुःखी तथा निराश होकर तपस्वी वेश में वन में निवास करने लगे। उसी वन में उन्हें समाधि नाम का वैश्य मिला, जो अपने स्त्री एवं पुत्रों के दुर्व्यवहार से अपमानित होकर वहाँ निवास करता था। दोनों में परस्पर परिचय हुआ। वे महर्षि मेधा के आश्रम में पहुँचे।

महामुनि मेधा से उनका संवाद :
महामुनि मेधा के द्वारा आने के कारण पूछने पर दोनों ने बताया- “यद्यपि हम दोनों अपने लोगों से ही अत्यंत अपमानित तथा तिरस्कृत हैं फिर भी उनके प्रति मोह नहीं छूटता, इसका क्या कारण है ?” महर्षि मेधा ने बताया- “मन आशक्ति के आधीन होता है। आदि शक्ति भगवती के दो रूप हैं- विद्या और अविद्या। प्रथम ज्ञान स्वरूपा हैं तथा दूसरी अज्ञान स्वरूपा। जो अविद्या ( अज्ञान ) के आदिकारण रूप में उपासना करते हैं, उन्हें विद्या-स्वरूपा प्राप्त होकर मोक्ष प्रदान करती हैं।”
राजा सुरथ ने पूछा- “देवी कौन हैं और उनका जन्म कैसे हुआ ?’

महामुनि बोले-“राजन्! आप जिस देवी के विषय में प्रश्न कर रहे हैं, वह नित्य-स्वरूपा तथा विश्वव्यापिनी हैं। उनके प्रादुर्भाव के कई कारण हैं। कल्पांत के समय महा प्रलय होती है। उसी समय जब विष्णु भगवान क्षीर सागर में अनन्त शैय्या पर शयन कर रहे थे तभी उनके दोनों कर्ण-कुहरों से दो दैत्य मधु तथा कैटभ उत्पन्न हुए। धरती पर चरण रखते ही दोनों विष्णु की नाभि कमल से उत्पन्न होने वाले ब्रह्मा को मारने दौड़े। उनके इस भयानक रूप को देखकर ब्रह्माजी ने अनुमान लगाया कि विष्णु के सिवा मेरी कोई शरण नहीं। किंतु भगवान विष्णु इस अवसर पर सो रहे थे। तब विष्णु भगवान को जगाने हेतु उनके नयनों में निवास करने वाली योगनिद्रा की स्तुति करने लगे। परिणामतः तमोगुण अधिष्ठात्री देवी विष्णु भगवान के मुख, नेत्र, नासिका तथा हृदय से निकलकर आराधक ब्रह्मा के सामने प्रकट हो गई। योगनिद्रा के निकलते ही भगवान विष्णु जाग उठे। भगवान विष्णु तथा उन राक्षसों में पाँच हजार वर्षों तक युद्ध हुआ। अंत में वे दोनों भगवान विष्णु द्वारा मारे गए।”

ऋषि बोले- अब ब्रह्माजी की स्तुति से उत्पन्न महामाया देवी की वीरता सुनो।

एक बार देवताओं के स्वामी इन्द्रे तथा दैत्यों के स्वामी महिषासुर में सैकड़ों वर्षों तक घनघोर संग्राम हुआ। इस युद्ध में देवराज इन्द्र की पराजय हुई और महिषासुर इन्द्रलोक का स्वामी बन बैठा। तब हारे हुए देवगण ब्रह्माजी को आगे करके भगवान शंकर तथा विष्णु के पास गए और उनसे अपनी व्यथा-कथा कही। देवताओं की इस निराशापूर्ण वाणी को सुनकर विष्णु तथा शंकर को महान क्रोध आया। भगवान विष्णु के मुख तथा ब्रह्मा, शिव, इन्द्र आदि के शरीर से एक पुंजीभूत तेज निकला जिससे दिशाएँ जलने लगीं। अंत में यही तेज एक देवी के रूप में परिणत हो गया। देवी ने सभी देवताओं से श्रायुध, शक्ति तथा आभूषण प्राप्त कर उच्च स्वर से अट्टहास युक्त गगनभेदी गर्जना की जिससे तीनों लोकों में हलचल मच गई। क्रोधित महिषासुर दैत्य सेना का व्यूह बनाकर इस सिंहनाद की ओर दौड़ा। उसने देखा कि देवी की प्रभा में तीनों देव अंकित हैं। महिषासुर अपना समस्त बल, छल-छद्म लगाकर भी हार गया और देवी के हाथों मारा गया। आगे चलकर यही देवी शुम्भ तथा निशुम्भ नामक असुरों का वध करने के लिए गौरी देवी के रूप में उत्पन्न हुई।

इन सब व्याख्यानों को सुनकर मेधा ऋषि ने राजा सुरथ तथा वणिक समाधि से देवी-स्तवन की विधिवत् व्याख्या की। इसके प्रभाव से दोनों एक नदी-तट पर जाकर तपस्या में लीन हो गए। तीन वर्ष बाद दुर्गाजी ने प्रकट होकर उन दोनों को आशीर्वाद दिया जिससे वणिक सांसारिक मोह से मुक्त होकर आत्म-चिंतन में लग गया तथा राजा ने शत्रुओं को जीतकर अपना खोया राज-वैभव पुनः प्राप्त कर लिया।

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